Wednesday, September 7, 2011

भ्रष्टाचार का समाजवाद


बचपन से ही एक शब्द सुनता आया हूँ 'समाजवाद' | जिसे देखो वो ही ऐसे समाजवाद की बातें करता है जिसमें ना कोई दीन रहेगा ना दुखी | बाल-बुद्धि को पतंगबाजी में ज्यादा आनंद आता था इसलिए बड़े होने तक यह समझ में नहीं आया कि यह 'समाजवाद' ऐसी कौन सी दवा है जिससे देश के सारे मर्जों का एक साथ इलाज हो सकता है ? किताबों से संपर्क किया तो पता चला कि भारत के संविधान से ले कर कार्ल मार्क्स की किताबों और रूस से ले कर चीन तक समाजवाद चारों तरफ बिखरा पडा है | किताबों ने समझाया कि समाजवादी व्यवस्था में संसाधनों को इस प्रकार बांटा जाता है कि राष्ट्र में और समाज में सबको सब प्रकार के संसाधन उपलब्ध हो सकें | विचार सचमुच क्रांतिकारी लगे | 'सबको सबकुछ' | यानी ना कोई गरीब और ना कोई अमीर | ना कोई 'हैव' और ना कोई 'हैव नॉट' | जब 'समाजवाद' का अर्थ समझ में आया तो 'पूँजीवाद' का अर्थ स्वतः ही साफ़ हो गया | यानी 'पूँजीवाद' वह व्यवस्था है जिसमें संसाधनों का केन्द्रीकरण कुछ व्यक्तियों के हाथों में इस प्रकार होता है कि बाकी जनता उससे वंचित रह जाती है | यह बड़ा ही घृणित विचार लगा, भारत के परिप्रेक्ष्य में तो बिलकुल गाली के सामान |
समाजवाद की विचारधारा में मग्न एक दिन घर में बैठा था कि मेरे एक मित्र आ गए | उन्हें बहस करना पसंद है, सो सीधे विषय पर आ गए-"यू नो गौरव, इंडिया हैज़ बिकम ए कैपिटलिस्टिक (पूंजीवादी) कंट्री ?' 
सुन कर मुझे झटका सा लगा | लगा जैसे उन्होंने खींच कर मेरे मुंह पर तमाचा मारा हो | तुरंत चाय कि प्याली छोड़ कर खड़ा हो गया | उन्हेंविदा करने के बाद भी प्रश्न मन में गूंजता रहा | "क्या सचमुच हमअपनी समाजवादी परंपरा और आदर्शों से विमुख हो गए हैं ?" अखबारके पन्ने पलटते हुए अचानक एक शब्द पर नज़र पड़ी और सारे संशयमिट गए | शब्द था 'भ्रष्टाचार' | इस शब्द को पढ़कर इतनी प्रसन्नताहुई के पूछिए मत | मन में विचार आया कि भारत वर्ष में अब भीसमाजवाद कायम है  और उसका सबूत है भ्रष्टाचार | सचमुचभ्रष्टाचार हमारे देश में समाजवाद का सबसे बड़ा उदाहरण है | कोई भीइससे अछूता नहीं है | रिक्शेवाले से ले कर हवाईजहाज वाले तक |पानवाले से ले कर होटल वाले तक | अभिनेता से ले कर नेता तक |सब के सब में यह अमूल्य वैचारिक संसाधन बराबर बनता हुआ है |
भ्रष्टाचार ने सचमुच हमारे देश में एक समाजवादी व्यवस्था किस्थापना करी है | वह व्यवस्था हैअर्थव्यवस्था के अन्दर अर्थव्यवस्थायानी सिस्टम के अन्दर सिस्टम | देश के कुछ मुट्ठी भर पूंजीवादी इसअर्थव्यवस्था को 'काली अर्थव्यवस्थाका नाम देते हैं | परन्तु यह तोसिर्फ उनकी ओछी मानसिकता का प्रतीक है | वास्तव में जिसे वह'काली अर्थव्यवस्थाकहते हैं वाही 'असलीअर्थव्यवस्था है | सिस्टमहै | इस व्यवस्था में सब मिल बाँट कर खाते हैं | इसमें छोटे-बड़े,काले-गोरेहिन्दू-मुसलमान...किसी का कोई भेद नहीं |मालिक-मुलाजिम सब बराबर हैं | सब एक दूसरे की पूँजी बढ़ाने मेंलगे रहते हैं | सच तो यह है कि भ्रष्टाचार पर आधारित व्यवस्था'इमानदारपूंजीवादियों  से उनकी कमाई को खींचकर सब मेंबराबर-बराबर बाँट देती है | इतना ही नहींभ्रष्टाचार के समाजवाद केऔर भी कई  फायदे हैं | इसमें जो कुछ है व्यक्ति का हैदेश का कुछभी नहीं | ना कोई टैक्स , ना कोई हिसाब-किताब | जोई कमाओ वोशान से खर्च करो | यही व्यवस्था देश का चंहु-ओर विकास कर रही है |पनपती मॉल  संस्कृतिचमचमाती गाड़ियांलज़ीज़ भोजन औरसुंदरियों वाले पांच-सात सितारा होटलसब भ्रष्टाचार के समाजवादकी ही देन हैं |
कुछ अल्पबुद्धि लोग भ्रष्टाचार के समाजवाद को 'बेईमानीकि संज्ञादेते हैं | वास्तव में ये उनके मन कि डाह है | भ्रष्टाचार असल में'बेईमानी ' नहीं 'बुद्धिमानीका द्योतक है | पुराने सड़े-गले सिस्टम केसाथ तो सब चल लेते हैं | मगर पुरानी रूढ़ियों को तोड़ कर नयीव्यवस्था का निर्माण करने के लिए अपार बुद्धि और कौशल किआवश्यकता पड़ती है | भ्रष्टाचार का समाजवादी ना केवल बुद्धिमानहोता हैवरन साहसी और ‘जुगाडशील’ भी होता है | दरअसलभ्रष्टाचार से दिमाग को पैनापन मिलता है | इससे 'लैटरल थिंकिंग'यानी समानांतर सोच कि वह बेजोड़ काबलियत विकसित होती हैजिसके गुण देश के आई.आई.एम्प्रायः गाया करते हैं | ‘लैटरल थिंकिंग' यानी आप छत से कुछ इस तरह से अंडा गिराएँ कि वह गिर भी जाए और फूटे भी नहीं | सत्य तो ये है कि 'जुगाड़' नामक कला, जिसपर सारा हिन्दुस्तान नाज़ करता है, इसी भ्रष्टाचार की देन है | जो काम कोई नहीं करवा सकता उसे जुगाड़ त्वरित गति से संपन्न करवाता  है | भ्रष्टाचारी काम अटकाना नहीं जानता, वह काम करवाना जानता है | भ्रष्टाचारी सीधे लक्ष्य तक पहुंचता है | रास्ते की परेशानियों की वह चिंता नहीं करता | इसी सोच का परिणाम है उसकी समृद्धि और खुशहाली | देखा जाए तो आज जिस अर्थव्यवस्था पर हम सब नाज़ कर रहे हैं , उसके आधार में 'ईमानदारी का पूँजीवाद' नहीं अपितु 'भ्रष्टाचार का समाजवाद' है | यह दुःख कि बात है इस महान व्यवस्था को कुछ डाह रखने वाले अकर्मण्य लोग बुरा बताते हैं | ऐसे पूंजीवादियों ने तो भ्रष्टाचार के समाजवाद के विरोध में आन्दोलनकारी संस्थाएं तक खड़ी करी हैं | इसके बावजूद यह सर्वत्र व्याप्त है | इसी ने 'इंस्टैंट जस्टिस' कि परिकल्पना को साकार किया है | इसलिए अब समय आ गया है कि हम 'इमानदारी के पूँजीवाद' को छोड़ कर  'भ्रष्टाचार के समाजवाद' की विचारधारा कि ओर पूरी तरह से अग्रसर हों | स्कूलों और कालेजों में इसे एक विषय की तरह पढ़ाया जाए | होनहार युवाओं को इस विषय में पी.एच.दी और डी.लिट जैसी उपाधियाँ दी जाएँ | जब कोई व्यक्ति 'डॉक्टर ऑफ़ हिस्ट्री' हो सकता है तो 'डॉक्टर ऑफ़ भ्रष्टाचार' क्यों नहीं ? मेरी मांग तो यहाँ तक है कि अब 'भ्रष्टाचार' को हिंदी में 'कार्य सुविधाकरण' और अंग्रेजी में 'करप्शन' की जगह 'फसिलीटेशन' कहा जाना चाहिए | 
(यह व्यंग्य लेख मैंने सन 2007 में लिखा था और 27 मई, 2007 को 'राष्ट्रीय सहारा' अखबार में छपा था )