Saturday, September 17, 2011

काश मैं मैडम का कुत्ता होता

कल शाम कुछ हजरतगंज की हवा खाने का मूड हुआ तो उस तरफ टहलने निकल गया | जनपथ मार्केट की तरफ मुड़ा ही था कि सामने से एक सुन्दर युवती आती दीख पड़ी | ऐसा मत समझिएगा कि हजरतगंज में किसी भी सुन्दर युवती को देख कर मैं 'अटेंशन' में आ जाता हूँ | यहाँ तो बात कुछ ऐसी थी कि मैडम सुन्दर होने के साथ-साथ कुछ जानी-पहचानी सी लगीं | कुछ देर कुलबुलाने के बाद सोये हुए जज़्बात दीमाग पर जमी वक़्त की परत को तोड़ कर बाहर निकले और दिल से आवाज़ आई "अरे ये तो रेखा जी हैं !!"
रेखा जी एक ज़माने में हमारी कोलोनी की धड़कन हुआ करती थीं | पसंद तो मुझे भी थीं मगर कभी भी उनके आशिकों की लम्बी कतार में शामिल होने कि हिम्मत नहीं हुई | आज इतने दिनों बाद उनको सामने देख कर मैंने जज्बातों के स्विमिंग पूल में जो गोता लगाया तो फिर वो तन्द्रा उनकी सुरीली "हाय" से टूटी |
"अरे आप ! यहाँ अकेले खड़े क्या कर रहे हैं ?"
"बस...बस ऐसे ही | कुछ काम से आया था | अपने एक दोस्त का इंतज़ार कर रहा था |" मैंने झूठ बोला |
"और आप सुनाइये क्या खरीददारी हो रही है ?" उनके हाथ में पकडे हुए पैकेट की तरफ देख कर मैंने पूछा |
"ओह ये ...ये तो बेबी के लिए फैरेक्स है |" उन्होंने जवाब दिया |
"बेबी के लिए फैरेक्स...!" ये वाक्य मेरे कानों में बम कि तरह फटा | यानी रेखा जी की न केवल शादी हो गयी थी, वरन बच्चा भी इतना बड़ा हो गया था कि फैरेक्स खाने लगे |
"मुबारक हो रेखा जी ! भई ये तो गलत बात है | शादी कर ली | बेबी भी हो गया और हमें खबर तक नहीं ?" मैंने शिकायत करी |
"अरे नहीं...नहीं !!आप गलत समझ रहे हैं | बेबी तो मैं प्यार से अपने जैसपर को कहती हूँ |" 
मेरी नासमझी पर तरस खाते हुए उन्होंने बात आगे बढ़ाई |
"अभी कुछ दिन पहले एक अलसेशियन पप्पी ख़रीदा है | उसी का नाम है जैसपर | बड़ा नाखरेवाला है | कुछ खाता ही नहीं था | मेरी एक दोस्त ने बताया कि उसे फैरेक्स खिलाओ | मैंने ट्राई किया | उसे फैरेक्स सचमुच बहुत पसंद आया | अब तो हालत ये है कि हर हफ्ते एक टिन चट कर जाता है |" रेखा जी के लहजे में वात्सल्य उमड़ आया |
"आपको पता है, अलसेशियन बड़ा समझदार कुत्ता होता है | मेरा जैसपर तो बड़ा क्यूट है..."
रेखा जी ने वात्सल्य पूर्ण स्वर में अपने 'बेबी' की तारीफ़ शुरू करी | मगर मेरा दिमाग चक्कर खा रहा था | एक सवाल मेरे ज़ेहन में हथोड़े कि तरह चोट कर रहा था | सवाल था " कुत्ते के लिए फैरेक्स ...!!!???"
"अच्छा मैं चलती हूँ | कभी घर आईये | आपको बेबी से मिलवाऊंगी |"
"ज..जी..."
रेखा जी चली गयीं, मगर मेरे ज़ेहन में एक ऐसी उथल पुथल छोड़ कर , जिसे सम्हालना नामुमकिन हो गया और मैं वहीँ फुटपाथ पर बैठ गया |
आप भले ही मुझे एक सड़ा हुआ सोशलिस्ट समझें मगर बात कुछ हज़म नहीं हो रही थी | जिस मुल्क में हर साल  लाखों बच्चे भूख और कुपोषण से मरते हों, उसमें फैरेक्स जैसा शिशु आहार कुत्ते के पिल्लों को खिलाया जा रहा है !?
मगर इस इस मामले में रेखा जी अकेली तो नहीं हैं | हमारी एक और जानकार मिलीं जो अपने कुत्ते को काजू-किशमिश खिलाती हैं | एक ऐसा भी केस देखा जहां एक मिसेज़ शर्मा अपने कुत्ते 'लकी' को मेहमानों से बाकायदा 'लकी शर्मा' के नाम से मिलवाती थीं | ऐसे भी असंख्य मामले हैं जहां इस गर्म देश में अपने  प्यारे-दुलारे कुत्तों को ठंडा रखने के लिए उनके 'मां-बाप ' उन्हें एयर कंडीशन में सुलाते हैं |
इस तरह के दृष्टान्तों से मैं अपने चीखते-चिल्लाते हृदय को सांत्वना दे रहा था, कि कंधे पर किसी ने हाथ रखा | ऊपर देखा तो होमगार्ड था |
"क्या बात है भाई ? यहाँ फुटपाथ पर बैठना मना है |" 
मेरा मन तो हुआ कि उससे पूछूं कि जनपथ में फुटपाथ पर बैठना कब से मना हो गया ? मगर बिना कुछ बोले चुप-चाप उठ गया | बोझिल कदमों से घर की तरफ जा रहा था कि सामने से एक चमचमाती 'मर्सडीज़' कार निकली | अन्दर एक सुन्दर सी मैडम थीं और उनकी गोद में सफ़ेद, सुन्दर, रुई के फाहे सा, उन के गोले सा...'पामेरियन' था | कार होर्न बजाती हुई बगल से निकल गयी और मन में एक हूक सी उठी...."काश..मैं मैडम का कुत्ता होता |"
कल डिस्कवरी चैनल पर एक कार्यक्रम देख रहा था | उसमें एक सुन्दर सी मैडम के हाथों में एक सुन्दर सा कुत्ता था जो बड़े प्यार से उनके मुंह पर जीभ फेर रहा था | मैडम के चेहरे पर जो प्रसन्नता के भाव थे उनको देखकर बरबस  मन में यह विचार आया ...
"लब का बोसा कुत्ता ले और हम खड़े देखा करें, क्या हमारी कदर कुत्ते के बराबर भी नहीं ....!!??"

(यह लेख सत्रह अप्रैल, 2002 को लखनऊ से प्रकाशित 'सिनेरियो' नामक साप्ताहिक अखबार में छपा था )