Sunday, July 8, 2012

हम अंधे हिन्दुस्तानी


बिक रहा है मुल्क अपना,
और हम खामोश हैं,
ज़ात-मज़हब के नशे में,
इस क़दर बेहोश हैं,
के  हमें ये भी नज़र आता नहीं क्या हो रहा.....

कल तलक जो थे भिखारी,
आज राजा हो गए,
भर लिया गद्दों में पैसा,
ओढ़ रूपया सो गए;
लूट खाया मुल्क को,
लेकिन वो बाईमान हैं,
भेड़िये वहशी दरिन्दे,
बन रहे इंसान हैं ;
मुल्क का आवाम गाफिल,
आँख मूंदे सो रहा,
हाँ हमें ये भी नज़र आता नहीं क्या हो रहा.....

पैसा तेरा-पैसा मेरा,
स्विस बैंक में सब भर दिया,
लूट सोने का महल,
इक खंडहर सा घर दिया;
सिर्फ घोटाले मिले,
जब से हुए आज़ाद हम,
छिन गए सब हक़ हमारे,
हो गए बर्बाद हम;
मुल्क का हर शख्स जैसे,
लाश अपनी ढो  रहा,
हाँ हमें ये भी नज़र आता नहीं क्या हो रहा.....

घूमते नेता विदेशों में,
बड़े आराम से,
बेचते कुर्सी मिली जो,
मुल्क के आवाम से;
आम इन्सां  इस वतन का ,
जो मरा तो क्या हुआ?
हुक्मरानों की नज़र में,
जो हुआ अच्छा हुआ;
अब नहीं कुछ भी बचा है,
अब भरोसा खो रहा;
हाँ हमें ये भी नज़र आता नहीं क्या हो रहा.....

हर तरफ अब बेईमानी,
हर तरफ धोखा-फ़रेब,
लूट कर अहल-ए-वतन को,
भर रहे सब अपनी जेब;
मांगते हैं भीख बच्चे,
आज सड़कों पे तो क्या?
है गरीबों के लिए,
ना  घर ना  खाना ना दवा;
हंस रहे नौकर यहाँ,
मालिक बेचारा रो रहा;
हाँ हमें ये भी नज़र आता नहीं क्या हो रहा.....

हम किसे इलज़ाम दें,
गलती हमारी भी तो है,
आज देखो वो लुटा,
कल अपनी बारी भी तो है;
सोचता है क्यों तेरा ही,
आशियाँ बच जाएगा,
जिसने लूटा है मुझे वो,
घर तेरे भी आएगा;
ख़त्म हो जाएगा सबकुछ,
ये ही मंज़र जो रहा;
हाँ हमें ये भी नज़र आता नहीं क्या हो रहा,
हाँ हमें ये भी नज़र आता नहीं क्या हो रहा.....