Showing posts with label शायरी. Show all posts
Showing posts with label शायरी. Show all posts

Friday, February 4, 2011

एक नयी ग़ज़ल


उनसे दूरी सही-सही ना गयी,
बात दिल की मगर कही ना गयी;

मैंने नज़रों में हाल-ए-दिल लिक्खा,
राज़ की बात अनकही ना गयी;

वो मेरे हो के भी पराये हैं,
चोट दिल पर लगी रही ना गयी;

मेरा मतलब गलत नहीं था पर,
बात उन तक कभी सही ना गयी;

फासलों को मिटा दिया मैंने,
एक दूरी थी बस वही ना गयी....


Friday, January 21, 2011

किस तरफ़ जाऊं ? एक नयी ग़ज़ल

रिवाज़ एक तरफ़ और प्यार एक तरफ़,
खिज़ां है एक तरफ़ और बहार एक तरफ़;

मैं बंट गया हूँ किस तरफ़ मेरे कदम जाएँ,
ख़ुदा है एक तरफ़ कू-ए-यार एक तरफ़ ;

सही-गलत का फ़र्क तो पता नहीं लेकिन,
है जीत एक तरफ़ और हार एक तरफ;

तोड़ दूं रस्म-ओ-रवायत की बेड़ियाँ क्या मैं,
विसाल एक तरफ़ इंतज़ार एक तरफ़ ;

उन्हें मिलूँ के ना मिलूँ समझ नहीं आता,
तड़प है एक तरफ़ और क़रार एक तरफ़;

मैं हक़ीक़त को मान लूं या दिल की बात सुनूं ?
जफ़ा है एक तरफ़ ऐतबार एक तरफ़ ;

मैं बढ़ाता हूँ कदम और ठिठक जाता हूँ,
इक तरफ़ फ़र्ज़, दिल-ए-बेक़रार एक तरफ़ ;

मैक़दा एक तरफ़ उनकी महक एक तरफ़,
प्यास है एक तरफ़ और ख़ुमार एक तरफ़;

सर कटा दे या सर झुका के जज़्ब कर गौरव,
इक तरफ़ एक मौत, बार-बार एक तरफ़...

Friday, December 24, 2010

एक नयी ग़ज़ल

तुमने देखा है क्या हिन्दोस्तान कैसा है,
भूखे नंगों से भरा गुलसितान कैसा है;
कभी हुए हो रूबरू ज़मीन से भी क्या,
बहुत पता है तुम्हें आसमान कैसा है;
जिसके पिंजर महल की नींव में भरे तुमने,
कभी देखा गरीब का मकान कैसा है;
मसर्रतों से भरा है जहां तुम्हारा पर,
कभी सोचा है दूसरा जहान कैसा है;
बड़ा वज़न है तुम्हारी जुबां का दुनिया में,
क्या जानते हो हाल-ए-बेजुबान कैसा है ?

Thursday, April 15, 2010

एक और नयी ग़ज़ल

कुछ तो दुनिया का तौर है यारों, 
कुछ मेरा भी मिजाज़ ऐसा है;
बात दिल की ज़बां पे मत लाओ,
मेरे घर का रिवाज़ ऐसा है;
जिसे कह दूं तो ज़लज़ला आये, 
मेरे सीने में राज़ ऐसा है;
जो नवाजिश में ज़ख्म देता है,
मेरा ज़र्रानवाज़ ऐसा है;
मुझे उसमें कमी नहीं दिखती,
कुछ मेरा इम्तियाज़ ऐसा है......

एक नयी ग़ज़ल

कोई उम्मीद न रही उनसे
इसलिए कोई गम नहीं होता;
इश्क शम्मा नहीं है शोला है,
ये हवाओं से कम नहीं होता;
उनका दिल-दिल नहीं है सेहरा है,
मेरे अश्कों से नाम नहीं होता;
मैंने देखा है दौर-ए-ग़ुरबत में,
कोई भी हमकदम नहीं होता;
बेच देता ज़मीर गर अपना,
आज मुझ पर सितम नहीं होता....


Tuesday, November 10, 2009

एक नई ग़ज़ल

दोस्तों,
कल काफ़ी दिनों बाद, मैं अपनी पुरानी लाल डायरी ले कर बैठा। उस में कुछ ऐसी ग़ज़लें थीं जो मैंने करीब डेढ़ साल पहले लिखी थीं । उस वक्त मैं डी.सी.एम् लखनऊ था । उनमें से एक आपके पेश-ऐ-खिदमत है:
मैं किनके साथ हूँ किनसे है मेरा राबता हर दिन,
यहाँ कितने ही चेहरों से है मेरा वास्ता हर दिन;
ना जाने कौन अपना है ना जाने कौन है दुश्मन,
इन्ही चेहरों में हूँ अपना पराया ढूंढता हर दिन;
मैं अक्सर सोचता हूँ कौन सी मंजिल को जाता है,
किया करता हूँ तय खामोश जो मैं रास्ता हर दिन;
मैं छोटा हूँ मुझे मेरे खुदा छोटा ही रहने दे,
बड़ों के दिल की गहराई का लगता है पता हर दिन;
ये माना साफगोई है खता इस दौर में लेकिन,
खुदाया माफ़ करना हो ही जाती है खता हर दिन.....