Sunday, June 21, 2020

"जनरल कास्ट"-एक कविता

जिसका माई-बाप नहीं है,
जो अधिकार-विहीना है
'जनरल कास्ट' वही है जिसको
नित घुट-घुट के जीना है...

जो जीता तब भी वो हारा,
जिसको बना दिया 'बेचारा';
जिसको राजनीति ने लूटा,
और जिसे 'सिस्टम' ने मारा;
जिसको अपने ही भारत में,
रोज़ हलाहल पीना है;
'जनरल कास्ट' वही है जिसको
नित घुट-घुट के जीना है...

पेट काटकर टैक्स भरे जो,
सीमाओं पर रोज़ मरे जो;
कब इनाम में जेल मिलेगी,
सोच-सोच कर रोज़ डरे जो;
पानी से भी बदतर जिसका,
'गौरव' ख़ून-पसीना है;
'जनरल कास्ट' वही है जिसको
नित घुट-घुट के जीना है..

अंदर रोता ऊपर हंसता,
जिसका जीवन सबसे सस्ता;
जिसे नौकरी, ना एडमीशन,
जिसके लिए बंद हर रस्ता,
नाइंसाफी का सागर है,
उसके बीच सफीना है;
'जनरल कास्ट' वही है जिसको
नित घुट-घुट के जीना है..

जिसके सारे नेता दुश्मन,
नरक सरीखा जिसका जीवन;
जो अपने घर में बेगाना,
रोज़ टूटता है जिसका मन;
घाव लगे हैं अंतर्मन पर,
ख़ामोशी से सीना है;
जनरल कास्ट' वही है जिसको
नित घुट-घुट के जीना है..