Tuesday, November 10, 2009

एक नई ग़ज़ल

दोस्तों,
कल काफ़ी दिनों बाद, मैं अपनी पुरानी लाल डायरी ले कर बैठा। उस में कुछ ऐसी ग़ज़लें थीं जो मैंने करीब डेढ़ साल पहले लिखी थीं । उस वक्त मैं डी.सी.एम् लखनऊ था । उनमें से एक आपके पेश-ऐ-खिदमत है:
मैं किनके साथ हूँ किनसे है मेरा राबता हर दिन,
यहाँ कितने ही चेहरों से है मेरा वास्ता हर दिन;
ना जाने कौन अपना है ना जाने कौन है दुश्मन,
इन्ही चेहरों में हूँ अपना पराया ढूंढता हर दिन;
मैं अक्सर सोचता हूँ कौन सी मंजिल को जाता है,
किया करता हूँ तय खामोश जो मैं रास्ता हर दिन;
मैं छोटा हूँ मुझे मेरे खुदा छोटा ही रहने दे,
बड़ों के दिल की गहराई का लगता है पता हर दिन;
ये माना साफगोई है खता इस दौर में लेकिन,
खुदाया माफ़ करना हो ही जाती है खता हर दिन.....

5 comments:

  1. Dear Gaurav
    You are the one who is having all kind of leadership quality.
    Vande Mataram!

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  2. बहुत अच्छे। सुख़न में भी लीडर, वाह…

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  3. Dear Himanshu ji,
    Thanks a lot for the appreciation of my writing. It gives me motivation to go on..

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  4. bahut khoob sir.... beautifully appealing !!

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