एक बार किसी बड़े ने मुझसे एक सवाल पूछा। मैंने उसका जवाब तो दिया ही साथ ही उनकी उस बात से जुड़ी अपनी थोड़ी तकलीफ़ भी बयान कर दी। वो जानना चाह रहे थे की काम क्यों नही हुआ। और मैं उन्हें बताना चाह रहा था की मैंने तो करने की कोशिश करी थी मगर एक और बड़े ने मुझे करने नहीं दिया। बस वो बड़े मुझ पर बरस पड़े। बोले "जितना पूछा है बस उस का जवाब दो"। अब, आख़िर वो बड़े थे, तो उनसे तो कुछ कह नहीं सकता था, मगर लिख तो सकता था। उस दिन लिखी ग़ज़ल पेश-ऐ-खिदमत है:
मुझे ख़ामोश रहने की तबीयत सीखनी होगी,
सितम सह कर भी चुप रहने की आदत सीखनी होगी;
खिलाफ़त ज़ुल्म की न हो शराफ़त इसको कहते हैं,
अभी मासूम हूँ मुझको शराफ़त सीखनी होगी;
अगरचे झूठ भी बोलो तो वो सच ही नज़र आए,
बड़ों से बात करने की नफ़ासत सीखनी होगी;
ज़रा बारीकियां समझूं अदा से चोट देने की,
नफ़ासत सीख कर मुझको नज़ाकत सीखनी होगी;
नया इंसान देखो रीढ़ की हड्डी नदारद है,
तुझे गौरव लचीलेपन की फितरत सीखनी होगी...
jaldi seekh lijiye, kaam ayegi
ReplyDeleteroshanpremyogi.blogspot.com
well said .. thats probably today's art of living... looking forward to more of your compositions...your favourites
ReplyDeleteसीख न पाओ तो बेहतर,
ReplyDeleteवर्ना दुनिया एक और अच्छा इंसान और अच्छा शायर खो देगी।
ऐसों का क्या? हर बड़ी मेज़ के पीछे दर्जनों - कोड़ियों में मिलते हैं।