दोस्तों, हम हमेशा ये कहा करते हैं कि कुछ बदलना चाहिए। इस पर चंद आशार हैं:
कोई बदलेगा नही ख़ुद को बदलना होगा,
आग बरसेगी मगर घर से निकलना होगा;
राह में ख़ार मिलें या के दहकते शोले,
पाँव नंगे ही सही राह पे चलना होगा;
ज़लज़ले यूँ ही ना आयेंगे सतह पर यारों,
दिल में ठंडे पड़े लावे को उबलना होगा;
फिर मेरे मुल्क में भूखा न दिखेगा कोई,
चंद जेबों में जमे घी को पिघलना होगा;
कल इसी राख पे फूलों कि कतारें होंगी,
आज लकड़ी को मगर आग में जलना होगा....
Sunday, August 23, 2009
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बहुत ख़ूबसूरत; हौसले को ललकारती हुई उम्मीद,
ReplyDeleteबहुत अच्छे!
अब तो लगता है कि घी पिघलेगा ही।